Wednesday, August 1, 2012

चाहत-ऐ-जिंदगी

ख्वाहिशों  की खुली ज़मीं पर ,लड़खड़ाती सी
अरमानों के दायरों से लडती ,झूंझती सी
मयखानों के दर पे, मुस्कुराती सी
और जूठी मुस्कुराहटो पर मुरझाती सी

जो ख़ामोशी चाही, तो चीखती सी
जो मचाया शोर , तो शमशानी सन्नाटों सी
गुज़रे वक़्त की फटी चादरों में खुद को समेटती
सिसकियों में डूबी ,आसूओ में नहाई सी

उस सर्द मौसम की बारिश सी
कदमों तले पत्तों की रंजिश सी
बिन खरोंच के उस ज़ख्म सी
कापती ,चरमराती , रोती सी

थी जो चाहतों से भरी इस कदर
की साँसों का दम घोटती थी
और अब जो साँसों का दौर है चला
तो चाहत-ऐ-जिंदगी को तलाशती सी


P.S - Now, for a while I have been arduously trying to write something in our primary language(had always wanted to), so , here is my very first attempt on it. Though I am not in conversant with Hindi/Urdu writing styles, this might be an amalgamation of both, so cut me some slack on pedant-ism

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